Wednesday 17 December 2014

नियति की विषम लेखनी


जो आनद प्राप्त कर मानव

निज सर्वस्व लुटा जाता है

पंथ-हीन राहों को चुनकर

दल-दल में ही फंस जाता है

कठिन दण्ड को पाकर भी

वही दुष्कर्म को दुहराता है

निंदा को भूषण समझकर

सहर्ष स्वीकार वो कर लेता है

अपराधों में जीने वाले

दारुण दुःख को अपनाता है

जीवन की दुखदायी चेतना

क्रूर कठोर तब बन जाता है

नियति की विषम लेखनी

मस्तक पर लिख जाता है

भाग्य प्रबल मानव निर्बल का 

क्रूर उन्माद जगा देता है

भूल ही जाता अपनी माता को

जिसके आंचल में सोता है

मानव मूल्यों की इस धरती पर

हिंसक स्वार्थ को रच देता है

विधि की रचना नोच-नोच कर

गुलजार चमन उजाड़ देता है

काँटों के पेड़ लगाने वाले

आम कहाँ वो खा पाता है

उर को छलनी करने वाले

ह्रदय वेधकर ही मरता है

पर मैंने तो ये भी सुना है

बाद में वो तो पछताता है

लेकिन वो सुनहरा पल तो

वापस कभी नहीं आता है.          

Friday 5 December 2014

जीवन के उस पतझड़ में


जीवन के उस पतझड़ में
सपना तोड़ते पलभर में
वही लाडला बेटा अपना
जिसके लिये देखा था सपना
दिन और रात किये थे एक
इच्छा पूरी किये थे प्रत्येक
ऊँगली पकड़कर जिसे चलाया
कब जागा किस समय सुलाया
आखों से ये क्षण गुजरता
मन पीड़ा से थक सा जाता
फ़ैल रहा है ये विकृत विचार
बच्चे करते अभद्र व्यवहार
खो गयी मानव की सोच
सेवा-श्रद्धा और स्वबोध
माता पिता होते थे शान
उनसे होती थी पहचान
आज उपेक्षित कहीं खड़े हैं
रोग पीड़ा से ग्रसित पड़े हैं
भारभूत समझ कर उनको
तिरस्कार करते हैं जिसको    
वही पग-पग पर बने सहारे
गर्व से झूम उठते थे बेचारे
वृद्ध अवस्था अभिशाप नहीं है
फिर क्यों शाप सा आज हुआ है
सुपुत्र वही जो  फर्ज निभाए
माता-पिता को सम्मान दे पाये.