Sunday 24 December 2017

जिनके लिए दृग बह निकला है



वक्त ने मुझपर किया भला है
दर्द पर मरहम लगा चला है
नये जोश नई उर्जा लेकर
विवश-विकल दिल फिर संभला है ....
मृदुल तरु की टहनी जैसी
स्वप्न सजाई थी मै वैसी
क्रूर काल के पंजों ने तो
नयनों से सपने तोड़ चला है .....
लम्हें मौन के धीर बंधाये
कुछ अनुभव ने हमें सिखाये
रस्म यही है , रीत यही है
आदि-अंत में जग ये ढला है .....
अब काली रजनी नहीं डराती
अश्क व्यथा पर नहीं बहाती
विधि ने चाहा वही हुआ है
नहीं किसी से कोई गिला है ....
दुःख-सुख के धागों को लपेटे
यादों को पल-पल में समेटे
पदचिन्ह अमिट होते हैं उनके  
जिनके लिये दृग बह निकला है ....  

भाईजी की तीसरी बरसी पर वेदनापूर्ण श्रद्धांजली      

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